Archive for May, 2021

नवधा भक्ति : रामायण – राम चरित मानस ; श्रीमद भागवतम तथा चैतन्य चरितामृत

May 31, 2021


अरण्य काण्ड में राम शबरी के संवाद की चर्चा है.

* कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि॥34॥

भावार्थ:- उन्होंने अत्यंत रसीले और स्वादिष्ट कन्द, मूल और फल लाकर श्री रामजी को दिए। प्रभु ने बार-बार प्रशंसा करके उन्हें प्रेम सहित खाया॥34॥

चौपाई :

* पानि जोरि आगें भइ ठाढ़ी। प्रभुहि बिलोकि प्रीति अति बाढ़ी॥
केहि बिधि अस्तुति करौं तुम्हारी। अधम जाति मैं जड़मति भारी॥1॥

भावार्थ:- फिर वे हाथ जोड़कर आगे खड़ी हो गईं। प्रभु को देखकर उनका प्रेम अत्यंत बढ़ गया। (उन्होंने कहा-) मैं किस प्रकार आपकी स्तुति करूँ? मैं नीच जाति की और अत्यंत मूढ़ बुद्धि हूँ॥1॥

* अधम ते अधम अधम अति नारी। तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी॥
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता। मानउँ एक भगति कर नाता॥2॥

भावार्थ:- जो अधम से भी अधम हैं, स्त्रियाँ उनमें भी अत्यंत अधम हैं, और उनमें भी हे पापनाशन! मैं मंदबुद्धि हूँ। श्री रघुनाथजी ने कहा- हे भामिनि! मेरी बात सुन! मैं तो केवल एक भक्ति ही का संबंध मानता हूँ॥2॥

* जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई। धन बल परिजन गुन चतुराई॥
भगति हीन नर सोहइ कैसा। बिनु जल बारिद देखिअ जैसा॥3॥

भावार्थ:- जाति, पाँति, कुल, धर्म, बड़ाई, धन, बल, कुटुम्ब, गुण और चतुरता- इन सबके होने पर भी भक्ति से रहित मनुष्य कैसा लगता है, जैसे जलहीन बादल (शोभाहीन) दिखाई पड़ता है॥3॥

* नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं॥
प्रथम भगति संतन्ह कर संगा। दूसरि रति मम कथा प्रसंगा॥4॥

भावार्थ:- मैं तुझसे अब अपनी नवधा भक्ति कहता हूँ। तू सावधान होकर सुन और मन में धारण कर। पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥4॥

दोहा :

* गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान॥35॥

भावार्थ:- तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥35॥

चौपाई :

* मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा। पंचम भजन सो बेद प्रकासा॥
छठ दम सील बिरति बहु करमा। निरत निरंतर सज्जन धरमा॥1॥

भावार्थ:- मेरे (राम) मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है, जो वेदों में प्रसिद्ध है। छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥1॥

* सातवँ सम मोहि मय जग देखा। मोतें संत अधिक करि लेखा॥
आठवँ जथालाभ संतोषा। सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा॥2॥

भावार्थ:- सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥2॥

* नवम सरल सब सन छलहीना। मम भरोस हियँ हरष न दीना॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई॥3॥

भावार्थ:- नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना। इन नवों में से जिनके एक भी होती है, वह स्त्री-पुरुष, जड़-चेतन कोई भी हो-॥3॥

* सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें॥
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई। तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई॥4॥

भावार्थ:- हे भामिनि! मुझे वही अत्यंत प्रिय है। फिर तुझ में तो सभी प्रकार की भक्ति दृढ़ है। अतएव जो गति योगियों को भी दुर्लभ है, वही आज तेरे लिए सुलभ हो गई है॥4॥

* मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा॥
जनकसुता कइ सुधि भामिनी। जानहि कहु करिबरगामिनी॥5॥

भावार्थ:- मेरे दर्शन का परम अनुपम फल यह है कि जीव अपने सहज स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। हे भामिनि! अब यदि तू गजगामिनी जानकी की कुछ खबर जानती हो तो बता॥5॥

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के प्रकार बताए गए हैं जिसे नवधा भक्ति कहते हैं – प्रहलाद महाराज जब ५ वर्ष के थे तो उन्होंने अपने पिता हिरण्यकश्यपु को उपदेश दिया:श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥श्रीमद भागवतं के सातवे स्कंध अध्याय ५ का यह २३ वां श्लोक है.

श्रवण (परीक्षित), कीर्तन (शुकदेव), स्मरण (प्रह्लाद), पादसेवन (लक्ष्मी), अर्चन (पृथुराजा), वंदन (अक्रूर), दास्य (हनुमान), सख्य (अर्जुनऔर आत्मनिवेदन (बलि राजा) – इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणईश्वर की लीलाकथामहत्वशक्तिस्रोत इत्यादि को परम श्रद्धा सहित अतृप्त मन से निरंतर सुनना।

कीर्तनईश्वर के गुणचरित्रनामपराक्रम आदि का आनंद एवं उत्साह के साथ कीर्तन करना।

स्मरणनिरंतर अनन्य भाव से परमेश्वर का स्मरण करनाउनके महात्म्य और शक्ति का स्मरण कर उस पर मुग्ध होना।

पाद सेवनईश्वर के चरणों का आश्रय लेना और उन्हीं को अपना सर्वस्व समझना।

अर्चनमनवचन और कर्म द्वारा पवित्र सामग्री से ईश्वर के चरणों का पूजन करना।

वंदनभगवान की मूर्ति को अथवा भगवान के अंश रूप में व्याप्त भक्तजनआचार्यब्राह्मणगुरूजनमातापिता आदि को परम आदर सत्कार के साथ पवित्र भाव से नमस्कार करना या उनकी सेवा करना।

दास्यईश्वर को स्वामी और अपने को दास समझकर परम श्रद्धा के साथ सेवा करना।

सख्यईश्वर को ही अपना परम मित्र समझकर अपना सर्वस्व उसे समर्पण कर देना तथा सच्चे भाव से अपने पाप पुण्य का निवेदन करना।

आत्मनिवेदनअपने आपको भगवान के चरणों में सदा के लिए समर्पण कर देना और कुछ भी अपनी स्वतंत्र सत्ता न रखना। यह भक्ति की सबसे उत्तम अवस्था मानी गई हैं।

चैतन्य चरितामृत में मध्य लीला अध्याय १९ श्लोक १६७ में  भक्ति की परिभाषा इस प्रकार है : –

अन्याभिलाषिता-शून्यं ज्ञान-कर्माद्यनावृतम् ।

आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।।

यह श्लोक श्रील रूप गोस्वामी  कृत  भक्तिरसामृतसिंधु १.१.१११ में  भी पाया जाता है. 


प्रियतम से निष्काम प्रेम यही है  कि  सिर्फ उनके श्री चरणों में अनुराग बढ़ता रहे इसके अलावा अन्य कोई भी अभिलाषा नही होनी चाहिए ।

सबसे पहले, वे भक्ति सेवा के स्तर पर भक्त को लाने की कोशिश कर रहे हैं । विधि-मार्ग । फिर धीरे – धीरे, जब वह आदी हो जाता है, तो राग-मार्ग का पता चलेगा । राग-मार्ग कृत्रिम नहीं है । यह होता है, स्वयम एव स्फुरतिअद: सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ… (भक्तिरसामृतसिन्धु १.२.२३४) ।

सब कुछ, श्री कृष्ण के साथ भक्ति संबंध, तुम कृत्रिम रूप से स्थापित नहीं कर सकते हो । प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक खास रिश्ता है कृष्ण के साथ अपने मूल संवैधानिक स्थिति में । यह धीरे – धीरे सामने आ जाएगा जैसे जैसे तुम भक्ति सेवा में अग्रिम होते हो निर्धारित नियमों और विनियमों में जैसे वे शास्त्र और आध्यात्मिक गुरु द्वारा निर्देशित किए गए हैं । जब तुम ठीक तरह से प्रशिक्षित होते हो, तुम राग-मार्ग के मंच पर अाते हो, फिर तुम्हारा रिश्ता… वो स्वरूप-सिद्धि कहा जाता है । स्वरूप-सिद्धि ।

तो स्वरूप-सिद्धि एक निश्चित स्तर पर उपलब्ध होता है । जैसे स्वरूप-सिद्धि की तरह… मैथुन जीवन के लिए इच्छा, हर इंसान में होती है, लेकिन जब लड़का और लड़की परिपक्व चरण पर आते हैं, यह प्रकट हो जाता हैं । यह कृत्रिम रूप से सीखा नहीं जाता है । इसी तरह, राग-मार्ग, स्वरूप-सिद्धि, व्यक्त होता है या प्रकट होता है । श्रवणादि शुद्ध-चित्ते करये उदय । उदय । यही शब्द, उदय, प्रयोग किया गया है ।


सु-लीला – सुन्दर काण्ड पर आधारित नाटक

May 12, 2021

Sundar Kand Lila

यह राधेश्याम रामायण पर आधारित है
My Role as Vibhishan

https://www.youtube.com/watch?v=jhhbdogVbMA&t=102s

२७ अप्रैल २०२१

कृष्ण – मानव रूप में क्यों अवतारी बने !

May 9, 2021

वैकुण्ठ धाम से भी ऊपर गोलोक धाम है जहाँ श्री कृष्ण हमेशा  रास लीला रचाते हैं .श्रीमती  राधा रानी तथा गोपियाँ उसमे भाग लेती हैं. यह निरंतर होता रहता है.


विष्णु  या नारायण के  रूप   में वैकुंठ में  भगवान् से मिलने के लिए सनकादिक ऋषियों – चार कुमारों  ने आगमन किया .  [  भगवान्   की इच्छा से ] द्वारपालों ने उनको अन्दर आने से रोका. फलतः चारो कुमारो ने द्वारपालों को असुर के रूप में जन्म लेने का श्राप दिया.


द्वार पालों -जय और विजय ने क्षमा माँगी.  सनकादिक  चारो – कुमारों  ने जय  विजय से कहा कि सात जन्मो के बाद तुम्हे मुक्ति  होगी.  यदि जल्दी मुक्ति चाहते हो तो तीन बार असुर बनना    होगा और  भगवान्  विष्णु ,  नारायण   खुद तुम्हे  वध कर के  मुक्ति   देंगे.


जय -विजय ने कहा कि हम शीघ्र  अति शीघ्र वैकुण्ठ में  वापस आना चाहते  हैं,  अतएव हमें असुर बनना   स्वीकार है.यह सब भगवान् की  लीला है जिसे वे वैकुण्ठ में नहीं कर सकते. इसलिए भगवान् ने ऐसा खेल खेला


अतएव सब से पहले सत्ययुग में  हिरन्याक्ष और    हिरण्यकश्यप के रूप में असुर  भ्राताओं  को  वाराह तथा न्र्सिह्म अवतार लेकर भगवान् ने उद्धार किया.  


फिर  त्रेता युग में रावण और कुम्भकरण  का उद्धार किया.


द्वापर युग में   भगवान्  ने  कृष्ण रूप से   शिशुपाल तथा  दन्तवक्र असुरों का वध किया.


भगवान् जैसा चाहें वैसा रूप  बना सकते हैं. पशु,  नर-सिंह तथा मानव रूपों में अवतार लिया.

राम और कृष्ण -एक चर्चा

May 9, 2021

राम और कृष्ण – एक चर्चा प्रस्तुतकर्ता डॉ प्रयाग नारायण मिश्र

pnmisra@hotmail.com +01 480 295 2490

बड़ा प्रसिद्द भजन है – जग में सुन्दर हैं दो नाम- चाहे कृष्ण कहो या राम !

एक प्रश्न पैदा होता है- राम कौन हैं, कृष्ण कौन हैं.

एक ओर राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं तो दूसरी तरफ कृष्ण लीला पुरुषोत्तम हैं.

राम अवतरित हुए थे- त्रेतायुग में जब कि कृष्ण प्रगट हुए थे द्वापर युग में.

तो दोनों में अंतर क्या है?

भागवत पुराण और भगवद-गीता के अनुसार कृष्ण अवतारी हैं और असंख्य अवतार उन्ही से निकले हैं. वेदव्यास के अनुसार: ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानेति शब्द्यते – कृष्णस तू भगवान स्वयं !

मतलब : सामान्य तरह से ब्रह्म सर्व व्यापक है, स्थानीय रूप से परमात्मा सभी प्राणियों के ह्रदय में रहते हैं और जीव / आत्मा को निर्देश देते हैं. किन्तु भगवान सिर्फ कृष्ण हैं ऐसा कहना है.

विष्णु पुराण के अनुसार – हरि के हज़ार नाम- लाख नाम कृष्ण के !.

विष्णु सहस्र नाम में उल्लिखित विष्णु के एक हज़ार नाम राम के एक नाम के बराबर होते हैं .

तीन बार राम का नाम लिया और एक बार कृष्ण का- तो वह भी एक समान बराबर होता है. .

भगवदगीता के अनुसार कृष्ण कहते हैं कि “रामः शस्त्र भ्रतामहम – यानी शस्त्र-धारियों में मैं राम हूँ.”

राम से बड़ा राम का नाम.

लंका में पुल बनाते समय जब राम पत्थर डालते थे तो वे पत्थर समुद्र में डूब जाते थे – जब कि वे पत्थर नहीं डूबते थे जिनपर राम का नाम लिखा होता था.

कलियुग में नाम के जाप का महत्व है – यह आसान है, सब के लिए सुलभ है. संकीर्तन यज्ञ सरल है और इसको सभी कर सकते हैं- स्त्री शूद्र , म्लेच्छ यवन आदि.

अन्य मंत्रो में ॐ का सर्व प्रथम उच्चारण होता है फिर मन्त्र का – और ॐ का अधिकार सिर्फ द्विज , ब्राह्मण को है अन्यों को नहीं.

सिर्फ एकमन्त्र है कलि संतरण उपनिषद् में जो बिना ॐ के शुरू होता है – हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !!

इसका जाप कोई भी कर सकता है. चैतन्य महाप्रभु ने इसको बदल कर सर्व सुलभ करवाया :

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे ! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !

-2-

भगवान् का नाम , खासकर राम का नाम किसी भी तरह उच्चारित किया जाय तो उससे मुक्ति मिलती है.

जब अर्थी निकलती है तो सभी कहते हैं- राम नाम सत्य है- सत्य बोलो मुक्त है.

वाल्मीकि को नारद मुनि ने सलाह दी, राम नाम का जाप करो.

वाल्मीकि पूर्वकाल में पापी थे , बोले कि राम नाम याद नहीं रहता और मुंह से नहीं निकलता.

तो नारद मुनि ने पूछा – क्या याद रहता है: वाल्मीकि ने उत्तर दिया : मरा मरा सुना है जब लोग मारे जाते थे तो अंत में यही कहते थे.

नारद जी के कहने पर वाल्मीकि ने उलटा नाम जाप किया. मरा मरा , और उस से उनको सारे पापों से छुटकारा मिल गया.

एक सत्य कथा है : एक मुल्ला या मौलवी शौच करने के लिए जंगल में गया . वहां सूअर आ गया और विष्टा खाने के लिए मुल्ला को तंग करने लगा . गुस्साकर मुल्ला शूकर से बोले – हरामजादा – दो मिनट के लिए बैठने भी नहीं देता . मृत्यु के बाद मुल्ला जी स्वर्ग गए. उन्होंने पूछा कि ऐसा कौन सा काम किया है कि जन्नत में उन्हें आने का मौक़ा दिया गया. दूतो ने कहा कि आपने एक बार राम का नाम लिया था- हराम कहा था इसलिए आप स्वर्ग में बुलाये गए हैं.

महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री ने अंत समय में राम नाम का उच्चारण किया था.

अंत में – जो यह कहते हैं कि वे राम को जानते हैं, कृष्ण के अनुसार वे भगवान् को नहीं जानते.

लेकिन जो कृष्ण के भक्तों को जानते हैं वे निश्चय ही भगवान् को जानते हैं.

प्रयागराज में महा कुम्भ के अवसर पर याज्ञवल्क्य मुनि एक मास तक अपने शिष्यों के साथ भरद्वाज आश्रम में रहे. जब जाने लगे तो भरद्वाज मुनि ने प्रश्न किया : यह शंका मेरे मन में उठती है. एक राम दशरथ के पुत्र और दूसरे राम स्त्री के वियोग में तड़पते हुए . तो क्या राम सचमुच भगवान् हैं?

शंका का निवारण करने के लिए उनको सती की कथा सुनायी गयी कि कैसे वे सीता का रूप बना कर राम की परीक्षा लेने पहुँची – यह सोच कर कि राम उनपर मोहित हो जायेंगे. ठुमक ठुमक कर आगे आगे चलने लगी.

भगवान् राम ने कहा – हे माते आप अकेले जंगल में विचरण कैसे कर रही हैं- भगवान् शिव कहाँ हैं ?

सती की चोरी पकड़ी गयी.

-3-

तो राम को जानना इतना आसान नहीं. आसान है यदि ह्रदय सरल हो .

सूर दास ने कहा है: कृष्ण का नाच देखने के लिए बचपन में गोपियाँ उनको थोड़ा सा मख्खन खिला

नाचने के लिए कहती थी. और मख्खन के लालच में कान्हा नाचते थे. कितना आसान है कन्हैया को पाना.

शबरी नीची जाति की थी फिर भी राम ने प्रेमवश जूठे बेर खाना स्वीकार किया.

कृष्ण ने विदुर के घर केले के छिलके खाए – दुर्योधन की मेवा त्यागी साग विदुर घर खायों.

अंत में राम भक्त हनुमान को सीता जी ने मोतियों की माला दी- एक एक मोती को वानर ने तोड़ा देखने के लिए कि अन्दर राम हैं या नहीं? और फिर पूछे जाने पर अपने ह्रदय को चीरकर दिखलाया कि देखो – दिल के अन्दर राम विराजमान हैं- लक्ष्मण और सीता सहित.

तो भक्तगण राम और कृष्ण के प्रेमियों – यदि राम और कृष्ण को जानना है तो उनके भक्तों को, शिष्यों को – सेवा के माध्यम से जानो. भरपूर प्रेम मिलेगा. सेवा निरंतर होती रहती है.

और सेवक मुक्ति की कामना नहीं करता. अवसर चाहता है प्रभु के नाम का प्रसार और प्रचार का.

हम दीन दुखी निबलों विकलों के सेवक बन संताप हरें ! जो हैं अटके भूले भटके उनको तारें खुद तर जावें !!

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे !

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!