Archive for December, 2020

विनोबा भावे – कुछ संस्मरण

December 27, 2020

मोहनदास करमचंद गाँधी के आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप में विनोबा भावे का नाम सर्व प्रथम आता है. यह समझने की बात है कि महात्मा गांधी गृहस्थ थे जब कि विनोबा भावे एक बाल ब्रह्मचारी थे. अहिंसा आन्दोलन और भूदान से विनोबा का नाम जुड़ा है.सर्वोदय आन्दोलन में भूदान का बड़ा भाग है और विनोबा भावे के नारे “जय जगत ” से सम्पूर्ण संसार की विजय का आभास होता है. जब गाँधी जी ने सत्याग्रह आन्दोलन १९४० में शुरू किया था तो विनोबा भावे को पहला सत्याग्रही चुना था. विनोबा जी ने १९५१ में देश की पद-यात्रा शुरू की और अमीरों से जमीन लेकर गरीब परिवारों को बांटी- इस आन्दोलन को भूदान के नाम से जाना जाता है.

शिक्षा के क्षेत्र में विनोबा भावे ने देव-नागरी लिपि का सुधार किया . अदि शंकराचार्य , बाइबिल, कुरान आदि ग्रंथों तथा दर्शनों पर पुस्तकें लिखी. संत ज्ञानेश्वर पर विनोबा भावे की टिप्पणियों को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है. डाकुओं  से शस्त्रास्त्रों  का समर्पण करवाना उनकी आध्यात्मिक शक्ति की  विशेष उपलब्धि थी। 

१९५९ में पवनार, महाराष्ट्र में ब्रह्म विद्या मंदिर की स्थापना की ताकि महिलायें अपनी सहायता स्वयं कर सकें और अपने उपयोग के लिए वस्तुओं का उत्पादन, निर्माण भगवद गीता के सिद्धांतों के अनुसार कर सकें. प्रातःकाल इशोपनिषद के श्लोक पाठन के बाद विष्णु सहस्रनाम और सायंकाल श्रीमद भगवद गीता का पठन -पाठन. दिन में खेती के लिए पुरातन ढंग से बैलों का उपयोग – ताकि अपनी जरूरत के लिए सब्जियां और अन्न उगाया जा सके. कपडे और खादी को खुद बिन कर सिल कर अपनी जरूरतें पूरी करना.

भगवद-गीता का अनुवाद मराठी भाषा में १९३२ में विनोबा जी ने किया और कालान्तर में इस पुस्तक का अनुवाद १८ भारतीय और ४ विदेशी भाषाओं में हुआ. १९५३ में विनोबा भावे प्रयागराज आये थे और उनके भाषण ने मुझे प्रभावित किया. जिन लोगों ने “गीता प्रवचन” खरीदी थी, उस पुस्तक पर विनोबा जी ने स्वयं हस्ताक्षर किया था. तब मेरी अवस्था १४ वर्ष की थी और मेरे मझले चाचा जी ने मुझे विनोबा जी से मिलवाया था. गांधी जी की “आत्म-कथा” को मैंने आद्योपांत ९ वर्ष की अवस्था में पढ़ा था और अपने को धीरे धीरे गांधीवादी विचारों से प्रभावित किया था. जब मैं स्नातक की पढाई के लिए यूइंग इसाई विद्यालय में भरती हुआ था तो मेरे अध्यापक पंडित राम किशोर शर्मा जी ने गर्मी की छुट्टियों में मुझे दो स्कूलों को देखने के लिए दो गावों में भेजा था – इनकी स्थापना में शर्मा जी का योगदान था. शर्मा जी ने मुझे “गाँधी पुस्तकालय” के निर्माण में लगाया जो कि बाद में केन्द्रीय पुस्तकालय का एक भाग बन गया.

हालाकि मैंने नौ-शिल्प की तकनीकी शिक्षा भारतीय प्रयुक्ति विद्या प्रतिष्ठान [ आई आई टी ] खड़गपुर से ग्रहण की थी और भारत के प्रथम जहाज कारखाने ” हिंदुस्तान शिपयार्ड , विशाखापत्तनम में कार्य भी करता था – एक प्रश्न मुझे हमेशा कुरेदता था- मैं कौन हूँ और क्या मुझे भगवद–साक्षात्कार हो सकता है? फलतः २५ वर्ष की अवस्था में मैं विनोबा भावे से मिलने पवनार गया- जो कि नागपुर के समीप था. भूदान आन्दोलन के सिलसिले में एक सप्ताह पद यात्रा में भाग लिया और विनोबा जी से मैंने उनके आन्दोलन में सम्मिलित होने का निवेदन किया. उस समय बाबा के आश्रम में १५ दिनों के लिए गोपाल बजाज भी आये थे. कई युवतिया भी थी जिनमे से एक का नाम “कालिंदी” था – ये सब लोग नित्य सस्वर इशोपनिषद तथा अन्य गीता के श्लोको का पठन – पाठन करते थे, और इस प्रार्थना -” ॐ तत सत “का सुबह सस्वर पाठ करते थे :-

ॐ तत्सत्श्री नारायण तू पुरुषोत्तम गुरु तू ! सिद्ध बुद्ध तू स्कन्द विनायक सविता पावक तू !! ब्रह्म मज़्द तू यह्व शक्ति तू एसु पिता प्रभु तू ! रूद्र विष्णु तू राम कृष्ण तू रहीम तो तू !! वासुदेव गो विश्व रूप तू चिदानन्द हरि तू। अद्वितीय तू अकाल निर्भय आत्म लिंग शिव तू !!

एक दिन प्रातःकाल में भ्रमण के समय “बाबा” से साक्षात्कार किया और कोई दस प्रश्न पूंछे. कुछ प्रश्न व्यग्तिगत थे – कैसे यह तय करें कि कौन काम पहले और कौन सा काम बाद में? क्या मैं आपका शिष्य बन सकता हूँ और पूरी तरह से भूदान आन्दोलन में शामिल हो सकता हूँ ? बाबा, क्या आपने भगवद दर्शन किया है – उत्तर हाँ या न में दें. मन को कैसे स्थिर -शांत किया जा सकता है? उल्लेखनीय है कि सारे आश्रमवासी विनोबा जी को ” बाबा” के नाम से संबोधन करते थे. साक्षात्कार के समय बाबा ने सारे प्रश्न सुने और कहा कि उनके सचिव सभी प्रश्नों के उत्तर लिख कर मुझे दे देंगे. दोपहर के बाद बाबा ने मुझे अपने कमरे में बुलवाया और सभी प्रश्नों के उत्तर लिखकर दिए और कहा कि मैं उनपर मनन करूँ. ९० दिनों के बाद मुझे भी भगवद -दर्शन हो जायेंगे. रहा कि कौन काम पहले करें और कौन बाद में- बाबा ने कहा कि जो सब से आवश्यक लगे उसको पहले और जो उतना जरूरी न लगे उसको बाद में. चूँकि मैंने तकनीकी शिक्षा ग्रहण की थी और पानी के जहाज बनाए का काम विशाखापत्तनम में करता था, बाबा ने सलाह दी कि उसी काम में लगे रहो- और समुद्र की लहरों से शिक्षा लो कि कैसे निरंतर अपने को काम में लगा सको. बाबा ने मुझसे यह प्रश्न किया कि क्या हम घरवालों के बता कर बाबा से मिलने आये हैं? मैंने उत्तर दिया के सभी मुझे ” विनोबा का चेला ” कहकर बुलाते हैं- और बाबा आप निश्चिन्त रहें. मेरे इस प्रश्न का उत्तर – क्या बाबा आपने भगवद-दर्शन किया है- हाँ या न- न बाबा और न उनके सचिव ने दिया. कहा कि तुम्हे स्वयं ९० दिनों के बाद भान हो जाएगा.

उन्ही दिनों भारत में अगले चुनाव की तैयारिया हो रही थीं . कुछ संस्थाएं , जैसे कि अमरीकी गुप्तचर संस्था CIA जवाहर लाल नेहरु के विरोध में थीं और चाहती थीं कि चुनाव में नेहरु हार जाएँ. शायद उन्ही विरोधियों में से एक प्रोफेसर कनाडा से आये थे और बाबा से मिले. इस साक्षात्कार में मुझे भी शामिल किया गया. प्रोफेसर ने कश्मीर समस्या के बारे में चुनाव plebisite हो- यह प्रश्न पूछा. उस समय भारत – पाकिस्तान में राजनीतिक तनाव था – युद्ध की तैयारीं भी होती रहती थी – कश्मीर के मुद्दे को लेकर. बाबा ने उत्तर दिया कि यदि जनमत चाहता है कि कश्मीर में चुनाव plebisite हो तो भारत सरकार को उसे नहीं रोकना चाहिए. मुझे निर्देश दिया गया कि कश्मीर समस्या के बारे में बाबा के क्या विचार हैं – यह जानकारी मुझे अखबारों को बताने की जरूरत नहीं- गुप्त रहनी चाहिए. निर्देशानुसार मैंने इस बात की चर्चा कभी भी और किसी ने नहीं की.

विनोबा भावे से अगले वर्ष फिर मिलने गया तब वे अस्वस्थ थे. उनके प्रसिद्ध अनुयायी सुरेश भाई मुझे मिले थे. उन्हें बहुत प्रसन्नता हुयी यह जान कर कि मैं बाबा से पिछले वर्ष मिल चुका हूँ.

कालान्तर में मुझे मन की शांति मिली पर भगवद दर्शन श्रील प्रभुपाद की पुस्तकों को पढ़कर तथा भक्तो के सत्संग और साधुओं की सेवा करके प्राप्त हुआ. धर्म शास्त्रों में भगवद गीता, श्रीमद भागवतम और चैतन्य चरितामृत प्रमुख है- कीर्तन और जाप मेरी साधना के अंग है तथा पिछले ११ वर्षो से गोशाला खोलकर गायों की सेवा करके अहिंसा धर्म को अमरीकी समाज में आगे बढाया है.

यह उल्लेख करना आवश्यक है: ” इतने योग्य बनो कि भगवान् तुम्हे देखने आयें “.

महा मन्त्र के जाप से कलियुग में यह सुलभ है : हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे! हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे !!

अमरीका को अपने लिए क्यों चुना और अपनी भारतीयता का अमरीका की एक अलग सी संस्कृति के साथ समन्वय बिठाया ?

December 25, 2020

डॉ प्रयाग नारायण मिश्र

सम्प्रति एक प्रवासी भारतीय होने के नाते यह प्रश्न उठता है कि मैंने क्यों अमरीका को अपने लिए चुना और कैसे भारतीयता का समन्वय एक अलग सी संस्कृति के साथ जोड़ा? जब मैं भारत से विदेश उच्च शिक्षा के लिए गया तब मेरी अवस्था २६ साल की थी. पिछले ५५ वर्ष मैंने तीन देशों में व्यतीत किये हैं: यूगोस्लाविया , जर्मनी और नोर्वे में लगभग १४ वर्ष और सम्प्रति ४१ वर्ष से अमरीका. पर भारतीय पार -पत्र का गौरव मुझे अभी भी है जिसमे ” सत्यमेव जयते ” लिखा है. आप यह समझ लीजिये कि हमने एक भारतीय प्रवासी होकर भारतीय संस्कृति का आचरण और प्रचार किया है- जिसमे देश की सेवा समय समय पर गोपनीय रूप से की है.

अमरीका की संस्कृति का प्रभाव तो मेरे ऊपर जन्म से पहले पड़ चुका था- मेरे पिता जी ने अपनी पढाई प्रयागराज के प्रख्यात यूइंग इसाई कोलेज में पूरी की और जब मैं पढने के योग्य हुआ तो मुझे भी दाखिला अगले ५ वर्षों के उसी विद्यालय में कराया. उल्लेखनीय है कि इस विद्यालय की स्थापना एक अमरीकी पादरी यूइंग ने १९०२ में की थी- उद्देश्य था -उच्च शिक्षा और कृषि विज्ञानं पढ़ाने के लिए. संगम के पास इस विद्यालय में हिन्दू, मुस्लिम और इसाई धर्मो के अतिरिक्त सिख, जैन पारसी तथा अन्य धर्मो के विद्यार्थी पढ़ते थे. प्रति ब्रहस्पतिवार को दोपहर में सभा होती थी जिससे अमरीका की जानकारी मिलती थी – अमरीकी अध्यापक भी पढ़ाते थे और गणतंत्र की खूबिया समझाते थे. तत्पश्चात अगले ५ वर्षों तक मैंने आई आई टी खड़गपुर में नौ-विज्ञानं की तकनीकी शिक्षा ग्रहण की – उल्लेखनीय है कि देश की सर्वोत्तम तकनीकी संस्था की स्थापना पश्चिम बंगाल में १९५१ में हुयी थी जिसमें विश्व के सर्वोत्तम मस्साचुस्सेत्स इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी के २०० प्रोफेसर १९५१ में आयेे और २ वर्षों तक रहे. तो फिर एक बार मुझे अमरीकी हवा में सांस लेने का अवसर मिला.

पर आप गलत न समझें- भारतीयता का एक अंश भी कम नहीं हुआ- खड़गपुर में हम खादी का कुर्ता और धोती पहन कर पढने जाते थे. हिंदी की पत्रिका “भारती ” प्रकाशित की और उसके लिए स्वाभाविक है अंग्रेजी -परस्त लोगो का विरोध भी सहना पडा था. विद्यार्थी होने के अतिरिक्त अपने विभाग-अध्यक्ष के सुपुत्र तथा एक अमरीकी परिवार को हमने हिंदी पढाई.

फिर काम करने के लिए हमने उस समय भारत का एकमात्र हिंदुस्तान जहाज कारखाना, विशाखपत्तनं, आंध्र प्रदेश में चुना. जब हमने विदेश जाने के लिए अनुमति माँगी तो अधिकारियों ने यह शर्त रखी कि वापस आने पर हमें वहां वापस काम नहीं मिलेगा. हमने कुछ महीनो के लिए कोल्कता के मरीन इन्जीनेअरिंग कोलेज में पढ़ाया और जब वहां त्यागपत्र दिया – विदेश जाने के लिए – तो अधिकारियों ने वही शर्त रखी कि विदेश से वापस आने पर काम नहीं मिलेगा. पाच वर्ष तक यूगोस्लाविया में हमने नौ-शिल्प में दक्षता प्राप्त की और काम की तलाश मुबई के शिपिंग कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया में की जिन्हें हमारी जरूरत थी. पर दुर्भाग्य , वहां के अधिकारी ने तुरंत काम देने के लिए स्वीकृति नहीं दी. तब बाध्य हो कर हमने जर्मनी के हम्बुर्ग शहर में काम तलाशा – ३ साल रहने के बाद नोर्वे गए और वहां काम के साथ निराला जी की कविताओं का अनुवाद नोर्वीय भाषा में किया, प्रकाशित भी किया.

नोर्वे में हम ७ साल रहे और अमरीका का ग्रीन कार्ड सपरिवार हमें मिला जिस कारण हम १९७८ में न्यू यॉर्क आये. जहाज निर्माण और तेल तथा गैस के समुद्री संसाधनों के निर्माण के क्षेत्र में हमने ५ वर्ष न्यू -ओरलींस , ह्यूस्टन तथा ओक्लाहोमा में कार्य किया. उल्लेखनीय है १९८१ में हमने पहले कवि सम्मेलन का आयोजन किया था जिसमे डॉ जयरमण और उनकी पत्नी तुलसी जयरामन न्युयोर्क से पधारे थे . गिरीश जौहरी जी तब ऑस्टिन टेक्सास में रहते थे और वे भी सम्मिलित हुए थे. तुलसीकृत राम चरित मानस का अखंड पाठ भी हमने हरे कृष्ण मंदिर , ह्यूस्टन में आयोजित किया था.

जब हम थोड़े समय के लिए न्युयोर्क रहते थे तब हमारा परिचय डॉ राम चौधरी जी से हुआ और हम अंतर-राष्ट्रीय हिंदी समिति के आजीवन सदस्य १९८३ में बने. डलास, टेक्सास आने पर डॉ नन्द लाल जी और ज्योति प्रकाश भाटिया जी के साथ मिलकर हमने अमरीका के पहले कवि सम्मेलन का आयोजन १९८५ तथा १९८६ में किया. डॉ नन्द लाल जी से हमारा परिचय डॉ रवि प्रकाश सिंह जी ने कराया था.

प्रवास के मध्य हमने बच्चों को हिंदी भी पढाई: नोर्वे में एक सिख परिवार के बच्चो को, फिर न्यू यॉर्क में सुराना परिवार, डलास, टेक्सास में कई भारतीय परिवारों के बच्चे हमसे हिंदी सीखते थे, और अरिजोना के फिनिक्स शहर के २ मंदिरों में हमने ७ वर्ष तक 100 से अधिक बच्चो को हिंदी पढाई.

गो सेवा महत सेवा. आपको यह जान कर प्रसन्नता होगी कि हमने एक गोशाला का निर्माण फिनिक्स शहर में १० साल पहले किया है. सम्प्रति ८ गायें हैं. गोशाला का उद्देश्य है – अमरीकी लोगों को गाय का महत्त्व सिखाना – गाय के दूध , घी, दही गोबर और गो-मूत्रका उपयोग सिखाना तथा सब से बड़ा अहिंसा धर्म का प्रचार. ययाहन मांसाहार इतना है कि एक लाख गायों की ह्त्या नित्य होती है. उल्लेखनीय है कि हमें १०० से अधिक स्वयं-सेवकों का सहयोंग मिला है – और बड़ी संस्थाएं भी आर्थिक योग दान करती हैं- जैसे कि; इंटेल, बैंक ऑफ़ अमरीका , अमेरिकन एक्सप्रेस, वेल्स फ़ार्गो बैंक आदि. हमने एरिज़ोना -फिनिक्स में बड़े पैमाने में होली २०१८ में मनाई थी जिसमे ४३०० लोग आये- क्या हिन्दू, क्या मुसलमान, क्या इसाई , क्या सिख- सभी लोग डट कर होली खेले.

अब आईये कुछ देश सेवा की बात कर लें: समय समय पर हमने अपने सुझाव भारत सरकार को दिए हैं और उनका तत्काल पालन हुआ है. सलाह हमारे जहाज निर्माण के क्षेत्र से सम्बंधित रही है: मुंबई में माझगावं शिपयार्ड में प्रोपेलर का कारखाना है जिस से पनडुब्बियों के लिए प्रोपेलर बनाए जाते हैं. १९७२ में जब हम जर्मनी में काम करते थे तो मुझसे बर्लिन स्थित भारतीय नौसेना के अधिकारी ने अनुरोध किया गया कि इसके लिए विशेष विवरण ( specification) की आवश्यकता है. हम्बुर्ग के भारतीय कोंसुल के माध्यम से यह जानकारी हमने भेजी. उल्लेखनीय है कि इसके लिए कोई धन की मांग हमने नहीं की थी. नौसेना के अधिकारी ने इसकी प्रशंसा की और कहा कि डॉ मिश्र , आपका नाम नेवी के खाते ( Indian Navy Gazette ) में उल्लिखित किया जाएगा और भविष्य में आप भारतीय नेवी से कोई भी सेवा ले सकते हैं. उसी वर्ष मेरी भेंट माननीय राज बहादुर जी से हुयी थी जो कि केंद्र सरकार में जहाजरानी तथा यातायात के मंत्री थे – उनके अनुरोध पर हमने एक रिपोर्ट भेजी जिसमे भारत में जहाज की संरचना के लिए एक केंद्र स्थापन की सिफारिश की गयी थी. एक और सुझाव भेजा था: जलयानो के वर्गीकरण के लिए एक भारतीय संसथान की स्थापना . दोनों सुझावों पर तीन महीनो के अंदर काम शुरू किया गया . यह एक बड़ी उपलब्धि थी जिस से भारत की विदेश मुद्रा बचती थी और जलयान का क्षेत्र आत्म निर्भर बनता है. मुझे सेवा का अवसर मिला यह मेरे लिए सौभाग्य की बात है.

हमारे घर की भाषा हिंदी है जिसे मेरे सुपुत्र और पत्नी हमेशा बोलते हैं. हमने बेटे को हिंदी पढ़ना और लिखना सिखाया . प्रवास के मध्य उसने जर्मन , नार्वेजियन भाषाएँ भी सीखीं. अमरीका में २५ वर्ष रहने और पढने के बाद हमारे सुपुत्र वापस भारत चले गए हैं और पिछले १५ साल से गुरुग्राम में कार्यरत हैं.

अमरीका में न जाने कितने भारतीय आई-टी / शिक्षण और मेडिकल क्षेत्र में काम करने आते हैं पर वापस कितने जाने को तैयार होते हैं ? यदि हमारे संस्कार भारतीयता से जुड़े हैं तो जीवन सफल है वरना अमरीका की माया ने हमारी आँखों को चका चौंध कर दिया है और हम अपनी संस्कृति की गरिमा से दूर हो जाते हैं. भारत में नौजवान अपनी मात्र भाषा को नहीं सीखते और विदेश आकर अंग्रेज़ी के चक्कर में अपनी भाषा भूल जाते हैं. भाषा और संस्कृति का गहरा सम्बन्ध है. भाषा छूटी तो संस्कृति डूबी .

वसुधेव कुटुम्बकम !

यादें- नानी नाना की

December 19, 2020

भारतीय रेलवे के इतिहास में घनश्याम दीक्षित का नाम स्वर्णिम अक्षरों से लिखा जाएगा क्योकि वे सर्व प्रथम भारतीय थे जिनका तकनीकी पर्चा अंतर्राष्ट्रीय रेलवे जर्नल में प्रकाशित हुआ था. लाल बहादुर शास्त्री जी रेलवे के मंत्री थे और वे दीक्षित जी का बड़ा आदर करते थे.एक और विशेष समानता थी: दोनों -शास्त्री जी की पत्नी ललिता शास्त्री और दीक्षित जी की पत्नी रुक्मिणी देवी -अंगरेजी भाषा से अपरिचित थीं और बहुत कम पढी लिखी थीं , अतएव जब भी जलसे -पार्टी होते तो इन दोनों के साथ में कोई और शामिल नहीं होता था. रुक्मिणी देवी मेरी नानी और घनश्याम दीक्षित जी मेरे नाना थे.

नाना जी का पूरा नाम घन श्याम नारायण दीक्षित था, और वे कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे -कानपुर के समीप भासैऊ ग्राम में पैदा हुए थे. उनके पिता का देहांत अल्पायु में हो गया था अतएव परिवार की जिम्मेदारी घनश्याम जी को निभानी पडी क्योकि भाई बहनों में वे सबसे बड़े थे. पढने में मेघावी क्षात्र थे और किसी तरह कर्ज लेकर रूरकी इन्जिनियरिंग को कॉलेज से पढाई समाप्त की. पर सारा उधार डेढ़ साल में चुका दिया और अपने भाइयों और बहनों की भी आर्थिक सहायता की. नाना को ५ स्वर्ण पदक मिले थे- मिडिल स्कूल में सर्व प्रथम, उत्तर प्रदेश के बोर्ड के इम्तहान में हाई स्कूल और माध्यमिक परीक्षा में सर्व प्रथम, प्रयाग विश्वविद्यालय से स्नातक की परीक्षा में सर्व प्रथम और फिर रूरकी इन्जीनियरिंग कॉलेज से- सर्व प्रथम- स्वर्ण पदक विजेता.नाना जी ज्योतिष विद्या के जानकार थे और एक सलाह के अनुसार उन्होंने अपना नाम घनश्याम नारायण से बदल कर सिर्फ घनश्याम दीक्षित रखा.

मेरी सगी नानी का देहांत तो बहुत पहले हो गया था जब कि मेरी माँ का विवाह भी नहीं हुआ था. अतएव उनकी बहन रुक्मिणी देवी मेरे लिए सगी नानी से बढ़कर थीं. नाना जी घनश्याम नारायण दीक्षित की मुझे याद है जब मैं ४ वर्ष का बालक था- कानपूर में मौसी के विवाह में उन्हें पहली बार देखा था. प्यार से हम उन्हें अब नाना कहेंगे- तो नाना रेलवे में बड़े अधिकारी थे और उनका बड़ा रोब रहता था. नानी तो कम पढी – लिखी थी और सादी थीं. नाना ने मुझे एक बार अपने कमरे में बुलाया और ड्राइंग बोर्ड पर बनाए स्टेशन के प्लेटफार्म का नकशा तथा गाडी के डिब्बे की डिजाईन दिखाई.

जब मेरा चयन आई आई टी -खड़गपुर में १९५८ में हुआ तो उसका श्रेय नाना को जाएगा क्योंकि उन्होंने मुझे इंजिनीयर बनने की प्रेरणा दी थी. अपने चयन की सूचना हमने उन्हें फोन कर के दी- वे तब दिल्ली में रेलवे बोर्ड में निदेशक थे. हमने रेलवे का फोन इस्तेमाल किया – दारागंज स्टेशन के एक संतरी के पास जाकर निवेदन किया और उसने लाइन मिला दी. लगभग पौन घंटे तक उन्होंने सलाह दी कि खूब मन लगाकर पढाई करना. और इस फोन ने याद दिलाई ३ साल पहले १९५५ की – जब मैं एक सप्ताह तक उनके पास रुका था. अवसर था -भारत की पहली औद्योगिक प्रदर्शनी जिसे देखने के लिए अपने विद्यालय से हम सभी गए थे – पर हम ठहरे नानी नाना के बंगले में जो कश्मीरी गेट के पास था. नाना ने डांट लगाई कि स्कूल की एक हफ्ते की पढाई का नागा करके नुमाइश देखने क्यों आये? क्या उसकी कमी को पूरा कर पाओगे? नानी ने मेरी सिफारिश की वरना नाना तो मुझसे तुरंत वापस जाने के लिए कह रहे थे. हम बाहर का खाना नहीं खाते थे- और नानी रोज सुबह गरम गरम पराठा मेरे लिए बाँध देती थी जिसे हम दिन में भूख लगने पर खाते थे. रात में नुमाइश समाप्त हो पर घर आते थे और फिर खा कर सो जाते थे. यह सिलसिला ६ दिनों तक चलता रहा. आखिरी दिन शाम को नाना ने हमें कार से घुमाने ले गए और दिल्ली के प्रसिद्ध स्थान दिखाए.

और १९६१ में मेरी ट्रेनिंग मुंबई में ५ महीने के लिए हुयी थी -उस समय नाना पूना में रेलवे इंजीनियरिंग कॉलेज के प्रधानाध्यापक थे, उनसे मिलने के लिए मैं ३ दिनों के लिए पूना गया था. नानी तो बहुत खुश हुयी थी- एक कारण यह था कि उनके कोई सगा नाती नहीं था- और मुझे वे बचपन से जानती और चाहती थीं. यह अच्छा रिश्ता था – न वह मेरी सगी नानी और न मैं उनका सगा नाती – प्रेम का नाता.

१९६५ में मेरा विवाह हुआ- मैं शादी में हिचक रहा था- नाना ने जब यह सूना तो मुझे मिलने और परामर्श के लिए बुलवाया . और मेरे मार्ग दर्शक नाना ने फिर मेरी खिंचाई की – समझाया – तर्क दिए और मुझे शादी के लिए तैयार करवाया. मेरे माता – पिता की चिंता ख़त्म हुयी. शादी की शाम नाना नहीं सम्मिलित हो पाए थे – शायद मेरे ऊपर नाराज थे – पर विवाह के पश्चात उन्होंने ३२ साउथ रोड के बंगले में हमें बुलाया. हम रात वहीं रुके- एक तरह से कहें तो सुहाग रात वहीं मनाई थी. एक संयोग की बात है कि मेरे बड़े साले ( रमेश चन्द्र शुक्ल ) नाना के बंगले के साथ लगे मकान में रहते थे और मेरी धर्म-पत्नी ने बचपन वही गुजारा था. मेरी पत्नी ने कहा कि वे बचपन में नाना के बंगले के बाहर लगे अमरुद चुरा लेती थीं.

१९६५ में अपनी बहन के विवाह के बाद हम सपत्नीक अपनी बहन और बहनोई विनोद तिवारी के साथ नाना से मिलने और आशीर्वाद लेने गए . नाना ने मेरे बहनोई को एक तकनीकी लेख की प्रति दी – यह लेख विश्व प्रसिद्द अंतर-राष्ट्रीय रेलवे जर्नल में नाना ने प्रकाशित करवाया था – और वे पहले भारतीय लेखक थे जिनका लेख इस पत्रिका में छापा गया था.

मेरी आख़िरी मुलाक़ात १९७६ में हुयी थी. तब हम नॉर्वे में रहते थे और मिलने के लिए प्रयागराज आये थे. नाना के बाएं पैर के अंगूठे की सर्जरी हुयी थी. वे काफी दुबले हो गए थे. नाना से हमने कहा कि हमें वापस नॉर्वे जाने का दुःख है- प्रवास और विदेश में भारत को छोड़ कर जाना. हमेशा की तरह नाना बोले: तुम विदेश नहीं स्वदेश जा रहे हो! क्या तुम्हे नहीं पता कि हम आर्य लोगों का मूल स्थान स्कंदिनेविया था- नाना ने लोकमान्य तिलक की पुस्तक का उद्धरण दिया: The Arctic Home In Vedas. इस पुस्तक के अनुसार आर्य लोग उत्तर दिशा में स्कंदिनेविया के देशो में रहते थे और वहां से ताशकंद होते हुए भारत आये. हमारे लिए तो सारा विश्व ही कुटुंब के सामान है.

अब बात नानी की कर लें: सुबह का समय था और नानी खाना बना रही थीं. गैस का स्टोव बहुत गंदा था आंच नहीं निकल रही थी. मेरे छोटे भाई प्रकाश ने एक झाडू की सींक तोडी और स्टोव के सारे छेदों की सफाई करदी. फिर क्या था – भकाभक पूरी आंच निकली . और नानी खुश- कहने लगी कि हे भगवान, क्या हम सपना देख रहे हैं कि आज भगवान् हमारे घर आए हैं – सब काम बना दिया.

नानी हमेशा प्रयागराज में प्राण त्यागना चाहती थीं ताकि उनकी अस्थियाँ संगम में प्रवाहित की जाएँ और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो !